Don’t aim for success if you want it; just do what you love and believe in, and it will come naturally. यदि आप सफलता चाहते हैं तो इसे अपना लक्ष्य ना बनाइये, सिर्फ वो करिए जो करना आपको अच्छा लगता है और जिसमे आपको विश्वास है, और खुद-बखुद आपको सफलता मिलेगी. David Frost डेविड फ्रोस्ट

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भिक्षाटन का उद्देश्य

दाढ़ी वाले और गेरुआ वस्त्र पहने लोग आपको यहां ख़ूब मिलेंगे

दाढ़ी वाले और गेरुआ वस्त्र पहने लोग आपको यहां ख़ूब मिलेंगे

भारत में एक साधु की पहचान उसके लंबे केश, बढ़ी हुई दाढ़ी और गेरुआ वस्त्र होते हैं. वे दान या भिक्षा पर ही निर्भर रहते हैं. कपड़िया बस्ती का हर घर भिक्षा पर ही चलता है. कपड़िया बस्ती का हर आदमी रोज़ सुबह साधु के वेश में भिक्षा मांगने निकल जाता है. भीख माँगना ही उसका पेशा है.

बस्ती में रहने वाले राम लाल ने बीबीसी को बताया, “हमारे पूर्वज घूमंतू जीवन जीते थे. वे भिक्षा मांग कर ही खाते थे. एक बार वे कानपुर आकर रुके – क़रीब 150 या 200 साल पहले. उस समय पनकी के ज़मींदार राजा मान सिंह थे. उन्होंने हमारे पूर्वजों से आग्रह किया की वे पनकी में ही बस जाएँ. हमारे पूर्वज यहीं बस गए.”

भिक्षा मांग कर जीने का जो सिलसिला तब शुरू हुआ वह आज भी चल रहा है.

हर सुबह कपाड़िया बस्ती का हर आदमी गेरुआ वस्त्र ओढ़ लेता है. माथे पर चंदन लगाता है और एक हाथ में कटोरा और दूसरे हाथ में दंड लेकर निकल पड़ता है भिक्षा मांगने.

राम लाल ने कहा, “हम भिक्षा के लिए कानपुर ही नहीं पूरे भारत का भ्रमण करते हैं. नवरात्रों के समय पश्चिम बंगाल जाते हैं तो गणेश पूजा के वक़्त महाराष्ट्र और कुम्भ मेले में इलाहाबाद.”

वे कहते हैं, “दिल्ली में तो हमारा अक्सर आना जाना लगा रहता है,” और वे दिल्ली के बड़े मन्दिरों के नाम बताने लगते हैं.

हम भिक्षा के लिए कानपुर ही नहीं पूरे भारत का भ्रमण करते हैं. नवरात्रों के समय पश्चिम बंगाल जाते हैं तो गणेश पूजा के वक़्त महाराष्ट्र और कुम्भ मेले में इलाहाबाद.”

कपाड़िया बस्ती में रहने वाले 80 वर्षीय प्रताप कहते हैं, “मैं इसी गाँव में पैदा हुआ था. मेरे पिता भी इसी गाँव में पैदा हुए थे. उन्होंने ने भी भिक्षा मांग कर गुज़ारा कि

या. मैंने भी अपना जीवन भिक्षा मांग के ही चलाया.”

आज प्रताप के चार बेटे भी मंदिरों में भीख मांग के अपना घर चलाते हैं. यह बात प्रताप काफ़ी गर्व के साथ कहते हैं.

गाँव का कोई भी व्यक्ति शायद ही पढ़ा-लिखा हो. प्रताप कभी स्कूल गए ही नहीं. राम लाल ने कक्षा एक या दो तक पढ़ाई की है. पर राम लाल अपने कुर्ते की जेब में क़लम ज़रूर रखते हैं.

क्षेत्र के पार्षद अशोक दुबे कहते हैं, “सदियों से कपड़िया बस्ती के लोग भीख मांग कर ही अपना घर चला रहे हैं और आज भी उसी पेशे में हैं.”

गाँव से एक किलोमीटर की दूरी पर एक स्कूल है. गाँव के बच्चे वहाँ सिर्फ़ मिड-डे मील के लिए ही जाते हैं.

गाँव के पास ही प्रसिद्ध पनकी हनुमान मंदिर है जहाँ हर मंगलवार हज़ारों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है.

अशोक दुबे कहते हैं, “पनकी हनुमान मंदिर को कपड़िया बस्ती के बच्चे अपना ट्रेनिंग सेंटर मानते हैं और भीख मांगने की कला वहीँ सीखते हैं.”

साभार: बीबीसी हिंदी : भीख नहीं माँगोगे तो शादी में होगी दिक्कत!

भिक्षाटन की आवश्यकता पहले इसलिए होती थी क्योंकि जो साधक होते थे या गुरुकुल में विद्यार्थी होते थे, वे अपना अधिकाँश समय साधना या पठन पाठन में व्यय करते थे | इसलिए उन्हें आवश्यक वस्तुओं के लिए भिक्षा पर ही निर्भर रहना पड़ता था | दूसरा कारण था भिक्षा से अहंकार पर नियंत्रण रखना व सभी तरह के विचार व व्यक्तियों से परिचय होता था | विद्यार्थी व्यावहारिक ज्ञान इसी प्रकार प्राप्त करता था और उसे यह भी जानने को मिलता था कि सभी व्यक्ति समान व्यव्हार नहीं करेंगे, इसलिए स्वयं के विचारों को दूसरों से प्रभावित नहीं होने देना है | क्योंकि हो सकता है कोई आपको दुत्कार रहा हो तो कोई आपको प्रेमपूर्वक खिलायेगा भी | इसी प्रकार कोई यदि आपके विचार से सहमत नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं लगा लेना चाहिए कि आप गलत हैं, कोई आपको मिल ही जाएगा जो आपके विचारों से सहमत हो |

ये सभी ज्ञान शिक्षा समाप्ति पर सांसारिक व्यवहार में काम आती थी | यदि वह विद्यार्थी कोई प्रशासनिक अधिकारी बनता था तो वह अपने क्षेत्र के सभी नागरिकों के व्यवहारों से या तो पहले से ही परिचित होता था या फिर उसके अनुभव काम आते थे |

लेकिन आज मैं देख रहा हूँ कि कानपुर के इस गाँव के तरह ही गेरुआ वस्त्र भिखारियों का ड्रेस बन गया है | कोई साधू सामाजिक कार्यों में रूचि लेता नहीं दिखाई नहीं पड़ता | और यदि कोई सामने आता भी है तो वह भी आर्थिक रूप से उसी पर निर्भर हो जाता है जिसे सहायता की आवश्यकता होती है | सहायता लेनेवाले पर भी इतना एहसान जता देता है वह कि वह यही सोचता है कि किस मनहूस घड़ी में मैंने सहायता माँगी थी |

कई साधू सन्यासी ऐसे हैं जिनके पास अकूत संपत्ति है लेकिन उनके भी व्यावसायिक शिक्षण संस्थान खुले होते हैं या अन्य व्यापारिक गतिविधियाँ होती रहती हैं | लेकिन इनके संस्थानों में यदि आप जाएँ तो किसी भी अन्य संस्थानों से भिन्न नहीं दिखाई देंगे | कोई भारतीय संस्कृति या भाषा पर कार्य नहीं कर रहा होता, केवल वस्त्र ही भगवा होता है अन्यथा स्वप्न तो विदेशों और विदेशियों के ही देख रहे होते हैं |

मैं अपनी यात्रा में कई सन्यासियों से मिला जो सेवा तो करना चाहते हैं और कई राष्ट्रहित में कार्य भी करना चाहते हैं, लेकिन समस्या वही कि उनके अपने खाने और रहने का कोई ठिकाना नहीं और सहायता भी करेंगे तो सहायता लेने वाला उनको खिलायेगा कहाँ से और उनके रहने की व्यवस्था कहाँ करेगा ? कई साधू सन्यासी ऐसे भी हैं जो अपने इलाज के लिए लाखों रूपये खर्च कर देंगे, लेकिन किसी को यदि सहायता की आवश्यकता हो तो इक्यावन या एक सौ एक रूपये की रसीद कटवाएँगे | जबकि इनके स्वयं के पास भी धन दान का ही आता है जो इनके करोडपति भक्त देते हैं |